मुंबई, 9 सितंबर। जब हम फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप का नाम सुनते हैं, तो हमारे मन में उनकी बेबाक और साहसी कहानियों की छवि उभरती है। उनका सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज की कड़वी सच्चाइयों को उजागर करता है।
अनुराग कश्यप भारतीय सिनेमा के उन चुनिंदा फिल्मकारों में से एक हैं, जिन्होंने बॉलीवुड को एक नया दृष्टिकोण और यथार्थवादी शैली प्रदान की। उनका जन्म 10 सितंबर 1972 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ। वे एक निर्देशक, लेखक, निर्माता और अभिनेता के रूप में अपनी बहुआयामी प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध हैं।
कश्यप ने 'ब्लैक फ्राइडे', 'गैंग्स ऑफ वासेपुर', 'देव डी', 'मनमर्जियां', और 'अग्ली' जैसी कई चर्चित फिल्में बनाई हैं। इन फिल्मों में समाज की सच्चाई और पात्रों की गहराई को बखूबी दर्शाया गया है।
इंडिपेंडेंट सिनेमा के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक माने जाने वाले अनुराग कश्यप को अक्सर पैरेलल सिनेमा का प्रतीक माना जाता है। उनकी फिल्मों का अनूठा और संवेदनशील स्टाइल हिंदी सिनेमा को एक नया आयाम देता है।
हालांकि, बहुत से लोग नहीं जानते कि उनकी पहली फिल्म को सेंसर बोर्ड ने बैन कर दिया था। उनकी कला पर आधारित किताब 'अनुराग कश्यप्स वर्ल्ड: अ क्रिटिकल स्टडी' में इस घटना का उल्लेख है।
2001 में, अनुराग कश्यप ने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म 'पांच' बनाई, जो एक डार्क क्राइम थ्रिलर थी, जिसमें पांच दोस्तों की कहानी थी। इस फिल्म में उनके जुनून और मेहनत की झलक साफ दिखाई देती है। लेकिन फिल्म के बाद जो हुआ, वह उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन गया।
जब फिल्म सेंसर बोर्ड के पास गई, तो उसमें दिखाए गए अत्यधिक हिंसा, अभद्र भाषा और ड्रग्स के कारण बोर्ड के सदस्य चौंक गए। उस समय के हिंदी सिनेमा के लिए यह सब नया था। सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पास करने से मना कर दिया और उस पर बैन लगा दिया।
बोर्ड ने फिल्म में कई बदलाव करने की मांग की, लेकिन अनुराग ने अपनी कलात्मक दृष्टि के कारण इसे मानने से इनकार कर दिया। इस कारण फिल्म रिलीज नहीं हो सकी, जिससे उन्हें मानसिक रूप से बहुत धक्का लगा।
'पांच' की असफलता उनके करियर का अंत नहीं थी, बल्कि एक नई शुरुआत थी। किताब में इस घटना का जिक्र करते हुए बताया गया है कि कैसे इस असफलता ने उनके फिल्म निर्माण के तरीके को और मजबूत किया। उन्होंने सीखा कि सिस्टम से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका अपनी कला पर विश्वास रखना है।
'पांच' में जो सच्चाई वे दिखाना चाहते थे, वही उनके बाद की फिल्मों की पहचान बन गई। 'ब्लैक फ्राइडे' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी उनकी मास्टरपीस फिल्में इसी हार से उपजी थीं। इन फिल्मों में भी हिंसा, गालियों और डार्क रियलिटी को बिना किसी फिल्टर के दिखाया गया है।
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